Monday, 16 June 2008

सरकार राज: आग से तो बेहतर है!


" Idea! लेकिन अभी पूरी तरह आया नहीं है." सरकार राज में उपस्थित कैरीकैचर खलनायकों की पूरी जमात में से एक गोविन्द नामदेव (जिनकी मूँछें इतनी अजीब हैं कि आप उन्हें कम और उनकी मूंछों को ज़्यादा देखते हैं. पेंसिल से बनाई हैं क्या!) का यह संवाद ही सरकार राज की पूरी कहानी है. इस Idea पर थोड़ी और मेहनत इसे सरकार से बेहतर फ़िल्म बना सकती थी. लेकिन जैसा जय को लगता है कि फ़िल्म कुछ जल्दबाज़ी में बना दी गई है, ठीक लगता है. ऐसे में angled और close-up shots पर, कलाकारों के अलग-अलग mannerisms पर तथा पार्श्व संगीत पर तो ध्यान दिया गया लेकिन लगता है कि सिर्फ़ इन्हीं पर ध्यान दिया गया. इन सभी तकनीकों से प्रभाव का निर्माण तो होता है लेकिन सिर्फ़ प्रभाव का ही निर्माण होता है. मेरे ऊपर के वाक्यों में जैसा उकताऊ सा दोहराव है आख़िर में सरकार राज भी सरकार का ऐसा ही उकताऊ दोहराव बनकर रह जाती है जहाँ कोई पुराना किरदार पिछली फ़िल्म से आगे ठीक तरह से विकसित नहीं होता. सवा दो घंटे की मशक्कत के बाद अंत में आपके पास ढेर सारे रामूप्रभाव ('अँधेरा कायम रहे' और इसबार साथ में पीलापन भी! पीला पीला हो पीला पीला... एकदम शाहरुख़ और सैफ style!) और भविष्य में सरकार-3 की उम्मीद ('चीकू को फ़ोन लगाओ' और क्यों था यार!) के सिवा कुछ नहीं बचता.

सरकार के अमिताभ की सबसे बड़ी खा़सियत थी उसकी खामोशी. वही उसकी ताक़त थी. 'शक्ति'. जब बिस्तर पर घायल पड़े सरकार को शंकर आकर कहता है कि मैंने भाई को मार दिया, सरकार कुछ नहीं कहते. लेकिन सरकार का वो चेहरा हमें हमेशा याद रहता है. लेकिन सरकार राज इससे उलट है. सरकार राज में दोनों की सोच है कि, 'हम तो फ़ेल होना चाहते थे. तुमने हमें पास कैसे कर दिया? लो हम फ़िर वही परीक्षा देंगे. अब पास करके बताओ!' दोनों बाप-बेटे मिलकर 'विष्णु के मामले में मुझसे गलती कहाँ हुई' और 'बाबा मुझे कोई पछतावा नहीं है' जैसे पिछली फ़िल्म के छूटे तंतू discuss करते हैं और एक अच्छे ड्रामा में तब्दील हो सकने की सम्भावना रखने वाले Idea को मेलोड्रामा में तब्दील कर देते हैं (ले देकर साला एक के के था उसे भी पिछली फ़िल्म में मार डाला) कोई क़सर बाकी न रहे इसलिए सरकार बार बार आंसू बहाते हैं. न जाने ये सरकार का रोना reality shows की देखादेखी है या लालकृष्ण आडवाणी की प्रेरणा से है. (लेकिन सरकार तो बाल ठाकरे से प्रेरित थी ना? लगता है फ़िर जल्दबाज़ी में घालमेल हो गया!) सरकार ना सिर्फ़ आडवाणी माफ़िक रोते हैं बल्कि आख़िर में बहु ऐश्वर्या को (और हैरान परेशान दर्शक को भी) पूरा plot समझाने की ज़िम्मेदारी भी उनपर ही है. वे सरकार में जो-जितनी बकवास नहीं कर पाये थे सारी सरकार राज में करते हैं. मुझे तो लगता है कि अपने henchmen बाला के हिस्से के सारे संवाद भी बिचारे सरकार को ही बोलने पड़े हैं!

लेकिन सरकार राज की जल्दबाज़ी का सबसे बड़ा शिकार है शंकर नागरे (अभिषेक बच्चन). फ़िल्म के लेखक, निर्देशक यह तय ही नहीं कर पाये हैं कि इस आधुनिक महाभारत में शंकर नागरे अर्जुन है या अभिमन्यु? नतीजा यह कि शंकर का किरदार अर्जुन की उग्र वीरता और चालाकी तथा अभिमन्यु की इमानदार पात्रता और भोलेपन के बीच में झूलता रहता है. उसका पूरी फ़िल्म में बार-बार 'सब संभाल लूँगा' का दावा अर्जुन रुपी अदम्य योग्यता है तो आख़िर में चक्रव्यूह में फँसकर मौत उसे फ़िर भोले अभिमन्यु के खाँचे में पहुँचा देती है. फ़िल्म शुरू से ही उसका चित्रण कुछ 'नादान' रूप में करती तो अभिमन्यु पूरा जीवन पाकर मरता और ये किरदार का झोल यूँ ना अखरता. लेकिन बाज़ार को अभिषेक अभिमन्यु के रूप में हजम नहीं होता शायद. आज बाज़ार को अर्जुन रुपी नायक अभिषेक चाहिए. character development गया भाड़ में.

ऐसे में आश्चर्य नहीं की सबसे बेहतरीन काम उस अदाकार के हिस्से आया है जिसके काँधों पर पिछली फ़िल्म का बोझा नहीं है. ऐश्वर्या राय एक बेहतर तराशे गए किरदार में जान फूंकती हैं (अनीता राजन) और अकेली बाप-बेटे की मैलोड्रामा से भरपूर जोड़ी पर भारी हैं. अनीता फ़िल्म में सिर्फ़ एक बार रोती है और वो मेरे हिसाब से इस फ़िल्म का सबसे बेहतरीन दृश्य है. उसकी ईमानदारी उसकी आँखों में दिखती है. सबसे कम संवादों के बाद भी (या शायद इसी वजह से?) उसका प्रभाव सबसे गहरा है. आमतौर पर वह हमेशा receiving end पर है. उन top angled shots में जहाँ शंकर उसे 'शक्ति' का और ना जाने क्या क्या समझा रहा है और फ़िर जहाँ वो अपने ससुर से अभिमन्यु की मौत के जिम्मेदार दुर्योधनों और शकुनियों के नाम जान रही है. हर संवाद में उसका 'सुनना' बोलने वालों के 'वक्तव्यों' से ज़्यादा प्रभावशाली है.

मैं एक वक्त Orkut पर 'आई हेट ऐश्वर्या राय' community का सदस्य रहा हूँ. आज भी दोस्तों में ऐश का प्रशंसक नहीं गिना जाता हूँ. लेकिन सरकार राज देखने के बाद मेरा मानना है कि अगर यह फ़िल्म किसी कलाकार के फिल्मी सफ़रनामे में एक नया आयाम जोड़ती है तो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ ऐश्वर्या हैं. उनका कार्पोरेट रूप बिपाशा से ज़्यादा convincing है. अब ये बात और है कि शायद ख़ुद ऐश्वर्या राय (बच्चन) यह निष्कर्ष सुनकर सबसे ज़्यादा दुखी हों!

एक सुझाव है. अगर आप मुम्बई पर एक बेहतरीन फ़िल्म देखना ही चाहते हैं तो 'आमिर' देखिये. एक ऐसी फ़िल्म जिसे देखने एक एक हफ्ते बाद भी जिसका review नहीं लिख पाया हूँ. इतना कुछ है कहने को कि कहना ही मुश्किल हो जाता है. फ़िर घनानंद याद आते हैं, "अच्छर मन को छरै बहुरि अच्छर ही भावे". कोशिश जारी है.

Friday, 30 May 2008

सचिन नामक मिथक की खोज उर्फ़ सुनहरे गरुड़ की तलाश में.


सचिन हमारी आदत में शुमार हैं. रविकांत मुझसे पूछते हैं कि क्या सचिन एक मिथक हैं? हमारे तमाम भगवान मिथकों की ही पैदाइश हैं. क्रिकेट हमारा धर्म है और सचिन हमारे भगवान. यह सराय में शाम की चाय का वक्त है. रविकांत और संजय बताते हैं कि वे चौबीस तारीख़ को फिरोजशाह कोटला में IPL का मैच देखने जा रहे हैं. रविकांत चाहते हैं कि मुम्बई आज मोहाली से हार जाए. यह दिल्ली के सेमी में पहुँचने के लिए ज़रूरी है. दिल्ली नए खिलाड़ियों की टीम है और उसे सेमी में होना ही चाहिए. आशीष को सहवाग का उजड्डपन पसंद नहीं है. संजय जानना चाहते हैं कि क्या मैदान में सेलफोन ले जाना मना है? मैं उन्हें बताता हूँ कि मैं भी जयपुर में छब्बीस तारीख़ को होनेवाला आखिरी मैच देखने की कोशिश करूंगा. यह राजस्थान और मुम्बई के बीच है. चाय के प्याले और बारिश के शोर के बीच हम सचिन को बल्लेबाज़ी करते देखते हैं. रविकांत मुझसे पूछते हैं कि क्या सचिन एक खिलाड़ी नहीं मिथक का नाम है? वे चौबीस तारीख़ को दिल्ली-मुम्बई मैच देखने जा रहे हैं और मैं छब्बीस तारीख़ को राजस्थान-मुम्बई. चाय के प्याले और बारिश के शोर के बीच मैं अपने आप से पूछता हूँ...


कहते हैं सचिन अपने बोर्ड एग्जाम्स में सिर्फ़ 6 अंकों से मैच हार गए थे. उनका तमाम क्रिकेटीय जीवन इसी अधूरे 6 रन की भरपाई है. क्रिकेट के आदि पुरूष डॉन ब्रेडमैन से उनके अवतार में यही मूल अंतर है. सचिन क्रिकेट के एकदिवसीय युग की पैदाइश हैं. डॉन के पूरे टेस्ट जीवन में छक्कों की संख्या का कुल जोड़ इकाई में है. उनका अवतार अपनी एक पारी में इससे अधिक छक्के मारता है. सचिन हमें ऊपर खड़े होकर नीचे देखने का मौका देते हैं. शिखर पर होने का अहसास. सर्वश्रेष्ठ होने का अहसास.

सचिन टेस्ट क्रिकेट के सबसे महान बल्लेबाज़ नहीं हैं. विज्डन ने सदी का महानतम क्रिकेटर चुनते हुए उन्हें बारहवें स्थान पर रखा था. एकदिवसीय के महानतम बल्लेबाज़ ने भारत को कभी विश्वकप नहीं जिताया है. वे एक असफल कप्तान रहे और उनके नाम लगातार पांच टेस्ट हार का रिकॉर्ड दर्ज है. माना जाता है कि उनकी तकनीक अचूक नहीं है और वह बांयें हाथ के स्विंग गेंदबाजों के सामने परेशानी महसूस करते हैं. उनके बैट और पैड के बीच में गैप रह जाता है और इसीलिए उनके आउट होने के तरीकों में बोल्ड और IBW का प्रतिशत सामान्य से ज़्यादा है. तो आख़िर यह सचिन का मिथक है क्या?

शाहरुख़ और सचिन वैश्वीकरण की नई राह पकड़ते भारत का प्रतिनिधि चेहरा हैं. यह 1992 विश्वकप से पहले की बात है. 'इंडिया टुडे', जिसकी खामियाँ और खूबियाँ उसे भारतीय मध्यवर्ग की प्रतिनिधि पत्रिका बनाती हैं, को आनेवाले विश्वकप की तैयारी में क्रिकेट पर कवर स्टोरी करनी थी. उसने इस कवर स्टोरी के लिए खेल के बजाए इस खेल के एक नए उभरते सितारे को चुना. गौर कीजिये यह उस दौर की बात है जब सचिन ने अपना पहला एकदिवसीय शतक भी नहीं बनाया था. एक ऐसी कहानी जिसमें कुछ भी नकारात्मक नहीं हो. भीतर सचिन के बचपन की लंबे घुंघराले बालों वाली मशहूर तस्वीर थी. वो बचपन में जॉन मैकैनरो का फैन था और उन्हीं की तरह हाथ में पट्टा बाँधता था. उसे दोस्तों के साथ कार में तेज़ संगीत बजाते हुए लांग ड्राइव पर जाना पसंद है. यह सचिन के मिथकीकरण की शुरुआत है. एक बड़ा और सफ़ल खिलाड़ी जिसके पास अरबों की दौलत है लेकिन जिसके लिए आज भी सबसे कीमती वो तेरह एक रूपये के सिक्के हैं जो उसने अपने गुरु रमाकांत अचरेकर से पूरा दिन बिना आउट हुए बल्लेबाज़ी करने पर इनाम में पाए थे. एक मराठी कवि का बेटा जो अचानक मायानगरी मुम्बई का, जवान होती नई पीढ़ी और उसके अनंत ऊँचाइयों में पंख पसारकर उड़ते सपनों का, नई करवट लेते देश का प्रतीक बन जाता है. और यह सिर्फ़ युवा पीढ़ी की बात नहीं है. जैसा मुकुल केसवन उनके आगमन को यादकर लिखते हैं कि बत्तीस साल की उमर में उस सोलह साल के लड़के के माध्यम से मैं वो उन्मुक्त जवानी फ़िर जीना चाहता था जो मैंने अपने जीवन में नहीं पाई.

सचिन की बल्लेबाज़ी में उन्मुक्तता रही है. उनकी महानतम एकदिवसीय पारियाँ इसी बेधड़क बल्लेबाज़ी का नमूना हैं. हिंसक तूफ़ान जो रास्ते में आनेवाली तमाम चीजों को नष्ट कर देता है. 1998 में आस्ट्रेलिया के विरुद्ध शारजाह में उनके बेहतरीन शतक के दौरान तो वास्तव में रेत का तूफ़ान आया था. लेकिन बाद में देखने वालों ने माना कि सचिन के बल्ले से निकले तूफ़ान के मुकाबले वो तूफ़ा फ़ीका था. यही वह श्रृंखला है जिसके बाद रिची बेनो ने उन्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज़ कहा था. यहाँ तक आते-आते सचिन नामक मिथक स्थापित होने लगता है. लेकिन सचिन नामक यह मिथक उनकी बल्लेबाज़ी की उन्मुक्तता में नहीं है. वह उनके व्यक्तित्व की साधारणता में छिपा है. उनके समकालीन महान ब्रायन लारा अपने घर में बैट की शक्ल का स्विमिंग पूल बनवाते हैं. सचिन सफलता के बाद भी लंबे समय तक अपना पुराना साहित्य सहवास सोसायटी का घर नहीं छोड़ते. एक और समकालीन महान शेन वॉर्न की तरह उनके व्यक्तिगत जीवन में कुछ भी मसालेदार और विवादास्पद नहीं है. वे एक आदर्श नायक हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तरह. लेकिन जब वह बल्लेबाज़ी करने मैदान पर आते हैं तो कृष्ण की तरह लीलाएं दिखाते हैं. शेन वॉर्न का कहना है कि सचिन उनके सपनों में आते हैं और उनकी गेंदों पर आगे बढ़कर छक्के लगाते हैं.

सचिन नब्बे के दशक के हिंदुस्तान की सबसे सुपरहिट फ़िल्म हैं. इसमें ड्रामा है, इमोशन है, ट्रेजेडी है, संगीत है और सबसे बढ़कर 'फीलगुड' है. एक बेटा है जो पिता की मौत के ठीक बाद अपने कर्मक्षेत्र में वापिस आता है और अपना कर्तव्य बख़ूबी पूरा करता है. एक दोस्त है जो सफलता की बुलंदियों पर पहुँचकर भी अपने दोस्त को नहीं भूलता और उसकी नाकामयाबी की टीस सदा अपने दिल में रखता है. एक ऐसा आदर्श नायक है जो मैच फिक्सिंग के दलदल से भी बेदाग़ बाहर निकल आता है. नब्बे का दशक भारतीय मध्यवर्ग के लिए अकल्पित सफलता का दौर तो है लेकिन अनियंत्रित विलासिता का नहीं. सचिन इसका प्रतिनिधि चेहरा बनते हैं. और हमेशा की तरह एक सफलता की गाथा को मिथक में तब्दील कर उसके पीछे हजारों बरबाद जिंदगियों की कहानी को दफ़नाया जाता है.


सचिन मेरे सामने हैं. पहली बार आंखों के सामने, साक्षात्! मैं उन्हें खेलते देखता हूँ. वे थके से लगते हैं. वे लगातार अपनी ऊर्जा बचा रहे हैं. उस आनेवाले रन के लिए जो उन्हें फ़ुर्ती से दौड़ना होगा. अबतक वे एक हज़ार से ज़्यादा दिन की अन्तरराष्ट्रीय क्रिकेट खेल चुके हैं. अगले साल उन्हें इस दुनिया में बीस साल पूरे हो जायेंगे. और फ़िर अचानक वे शेन वाटसन का कैच लपकने को एक अविश्वसनीय सी छलाँग लगाते हैं और बच्चों की तरह खुशी से उछल पड़ते हैं. मिथक फ़िर से जी उठता है.

सचिन की टीम मैच हार जाती है. जैसे ऊपर बैठकर कोई इस IPL की स्क्रिप्ट लिख रहा है. चारों पुराने सेनानायकों द्रविड़, सचिन, गाँगुली और लक्ष्मण की सेनाएँ सेमीफाइनल से बाहर हैं. इक्कीसवीं सदी ने अपने नए मिथक गढ़ने शुरू कर दिए हैं और इसका नायक मुम्बई से नहीं राँची से आता है. यह बल्लेबाज़ी ही नहीं जीवन में भी उन्मुक्तता का ज़माना है और इस दौर के नायक घर में बन रहे स्विमिंग पूल, पार्टियों में दोस्तों से झड़प और फिल्मी तारिकाओं से इश्क के चर्चों की वजह से सुर्खियाँ बटोरते हैं. राँची के इस नए नायक के लिए सर्वश्रेष्ठ होना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जीतना महत्त्वपूर्ण है.

सितारा बुझकर ब्लैक होल में बदल जाने से पहले कुछ समय तक तेज़ रौशनी देता है. सचिन के प्रसंशकों का मानना है कि वो आँखें चौंधिया देने वाली चमक अभी आनी बाकी है. लेकिन मिथकों को पहले से जानने वाले लोगों को पता है कि देवताओं की मौत हमेशा साधारण होती है. कृष्ण भी एक बहेलिये के तीर से मारे गए थे. एक अनजान बहेलिये के शब्दभेदी बाण से मारा जाना हर भगवान् की और जलते-जलते अंत में बुझकर ब्लैक होल में बदल जाना हर सितारे की आखि़री नियति है.

Thursday, 8 May 2008

पधारो म्हारे देस!

कहाँ रंगीन मिजाज़ शेन वार्न और कहाँ पारंपरिक राजस्थान. जनता शंका में थी जी... सच्ची!


कुछ शहर के बारे में...
जयपुर के पुराने शहर में घरों का गुलाबी रंग कुछ उड़ा-उड़ा सा है लेकिन अब भी बाकी है. और इसके साथ ही जयपुर ने अपना ठेठ हिन्दुस्तानी अंदाज अब भी बचा कर रखा है. राजनीति में जयपुर भा.ज.पा. का गढ़ माना जाता है. गिरधारीलाल भार्गव यहाँ से सांसद हैं और पुरानी बस्ती में उनके बारे में मशहूर है कि शहर में अपनी पैठ उन्होंने लोगों की अर्थियों को कांधा देकर बनाई है. वो रोज़ सुबह उठकर अखबार पढ़ते हैं. देखते हैं कि श्रद्धांजलि वाले कॉलम में किसकी मौत की सूचना है और फिर पहुँच जाते हैं उनके घर. और इसी प्रतिष्ठा के दम पर वो एक चुनाव में जयपुर के राजा भवानी सिंह को भी हरा चुके हैं. कहते हैं कि यहाँ भा.ज.पा. पत्थर की मूरत को भी चुनाव में खड़ा कर दे तो वो भी जीत जाए. समय-समय पर प्रमोद महाजन, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं के लिए सुरक्षित सीट की तलाश में उन्हें जयपुर से लोकसभा का चुनाव लड़वाने का प्रस्ताव आता रहा है. लोकसभा चुनावों में यहाँ शहर में हर तरफ़ एक ही गीत बजता है... "शावा नी गिरधारीलाल! बल्ले नी गिरधारीलाल!"

जीत के पहले...
16 तारीख को मैं जयपुर पहुँचा. कुछ इस तरह की खबरों ने मेरा स्वागत किया :-



अरे भाई वॉर्न आया है. कोई ना कोई कांड तो करेगा ही! जनता इसी आशंका (पढ़ें उम्मीद) में थी.



सुना है शहर की नर्सों को ख़ास हिदायत दी गई है कि किसी भी अनजान नंबर से SMS आने पर तुरंत IPL के अधिकारियों को सूचित करें. और अगर SMS में गुगली या फ्लिपर जैसे शब्दों का प्रयोग हो तो सीधा ललित मोदी को रिपोर्ट करें.



कुछ लोग यह भी ख़बर लाये थे कि वॉर्न को ख़ास नोकिया 2100 दिया गया है उसके घातक SMS पर नियंत्रण के लिए और उसके फ़ोन को विशेष निगरानी में रखा गया है.



शेन वॉर्न के शहर में आगमन के साथ ही सिगरेट की बिक्री में भारी इजाफा दर्ज किया गया है.



रोहित का कहना था कि हर टीम के पास स्टार है. किसी के साथ शाहरुख़ है तो किसी के साथ प्रिटी जिंटा. इसपर भास्कर का कहना था कि हमारे पास भी तो स्टार है, रोहित राय! और इला अरुण और मिला लो तो फिर और कौन टिकता है हमारे सामने! ऐसा भी सुना गया कि ललित मोदी ने जयपुर में पहले मैच में रोहित राय के पोस्टर बेचे. उसमें रोहित राय शर्ट-लेस अपनी सिक्स पैक ऐब्स दिखा रहा था! क्या बात है, तुम्हारे पास शाहरुख़ तो हमारे पास रोहित राय! वाह क्या मुकाबला है!



पहला मैच देखने आए लोगों को जब पता चला कि समीरा रेड्डी का नाच मैच के पहले ही हो चुका तो उन्होंने अपने पैसे वापिस लौटाने की मांग की. बाकि लोगों ने चीयरलीडर्स से तसल्ली की.

जीत के बाद...
लगातार 5 जीत और IPL टेबल में सबसे ऊपर आने के बाद शेन वॉर्न अब राजस्थान का अपना छोरा है. आने वाले समय में आप कुछ ऐसी चीजों के लिए तैयार रहें...



इस महान वीर कर्म के लिए वॉर्न को तेजाजी,पाबूजी और रामदेव जी की तरह लोकदेवता का दर्जा मिल सकता है. आपकी जानकारी के लिए हम बता दें कि ये सभी लोकदेवता साधारण मनुष्य ही थे जो आमतौर पर गाय या अन्य पशुओं की रक्षा में मारे गए. वैसे ही उसके मन्दिर बन सकते हैं जहाँ परसाद में सिगरेट चढ़ा करेंगी. बोलो शेन वॉर्न महाराज की जय!



अगले RAS के पेपर में राजस्थान के सामान्य ज्ञान में एक सवाल होगा, "राजस्थान के दो वीर योद्धा जिनका एक ही नाम हैं और जिनके पराक्रम के किस्से बच्चे-बच्चे की ज़बान पर हैं." और जवाब होगा, "शेन वॉर्न और शेन वाटसन."


राजकुमार संतोषी अपना सर पीट रहा होगा. कह रहा होगा कि अब अपनी फ़िल्म 'हल्ला बोल' रिलीज़ करता तो राजस्थान रोयल्स के हल्ला बोल में वो भी चल जाती.



इला अरुण को एक संगीत कम्पनी फिर से प्राइवेट अल्बम का कांट्रेक्ट देगी. वीडियो में रखी सावंत को लिया जाएगा (और कौन!) बाद में दोनों में कौन ज्यादा पैसे लेगा इसको लेकर झगड़ा होगा और दोनों एक-दूसरे से ज्यादा बड़ी आईटम होने का दावा करेंगी. राखी हाल ही में आए 'देखता है तू क्या' का हवाला देंगी और इला अरुण 'दिल्ली शहर में म्हारो घाघरो जो घूम्यो' को सबूत के तौर पर पेश करेंगी. फिर इस मुद्दे पर राष्ट्रीय मीडिया द्वारा एक देशव्यापी SMS अभियान चलेगा. नतीजे का हमें भी इंतज़ार है.
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यहाँ सबकुछ मिलेगा सिवाय क्रिकेट के. निवेदन है कि उसकी तलाश ना करें. अगर क्रिकेट देखनी है तो इंग्लैंड- न्यूजीलैंड टेस्ट सीरीज़ (15 मई) और ऑस्ट्रेलिया- वेस्ट इंडीज़ टेस्ट सीरीज़ (22 मई) का इंतज़ार करें. चाहें तो 11 मई को मैनचेस्टर यूनाइटेड को खिताब जीतते देखें जैसी उम्मीद है.

Tuesday, 15 April 2008

कितने शहरों में कितनी बार


फिराक साहब की विनोदप्रियता और मुंहफटपन के कई किस्से अनिता और शशि को जुबानी याद थे. दोनों उनसे मिलने जाती रहती थीं. अनिता ने ही बताया कि एक बार फिराक साहब के घर में चोर घुस आया. फिराक साब और अनिता दोनों बैंक रोड पर विश्वविद्यालय के मकानों में रहते थे. ऐसा लगता था उन मकानों की बनावट चोरों की सहूलियत के लिए ही हुयी थी, वहां आएदिन चोरियाँ होतीं. फिराक साब को रात में ठीक से नींद नहीं आती थी. आहट से वे जाग गये. चोर इस जगार के लिए तैयार नहीं था. उसने अपने साफे में से चाकू निकाल कर फिराक के आगे घुमाया. फिराक बोले, "तुम चोरी करने आये हो या कत्ल करने. पहले मेरी बात सुन लो."
चोर ने कहा, "फालतू बात नहीं, माल कहाँ रखा है?"
फिराक बोले, "पहले चक्कू तो हटाओ, तभी तो बताऊंगा."
फ़िर उन्होंने अपने नौकर पन्ना को आवाज़ दी, "अरे भई पन्ना उठो, देखो मेहमान आये हैं, चाय वाय बनाओ."
पन्ना नींद में बड़बडाता हुआ उठा, "ये न सोते हैं न सोने देते हैं."
चोर अब तक काफी शर्मिंदा हो चुका था. घर में एक की जगह दो आदमियों को देखकर उसका हौसला भी पस्त हो गया. वह जाने को हुआ तो फिराक ने कहा, " दिन निकाल जाए तब जाना, आधी रात में कहाँ हलकान होगे." चोर को चाय पिलाई गई. फिराक जायज़ा लेने लगे कि इस काम में कितनी कमाई हो जाती है, बाल बच्चों का गुज़ारा होता है कि नहीं. पुलिस कितना हिस्सा लेती है और अब तक कै बार पकड़े गये.
चोर आया था पिछवाड़े से लेकिन फिराक साहब ने उसे सामने के दरवाजे से रवाना किया यह कहते हुए, "अब जान पहचान हो गई है भई आते जाते रहा करो."

-ममता कालिया. "कितने शहरों में कितनी बार" अन्तिम किश्त से. तद्भव17. जनवरी 2008.

Friday, 28 March 2008

नैतिक दुविधा से ग्रस्त खूनी खेल: रेस


एक बात है, अब्बास-मस्तान नामधारी यह सफ़ेदपोश निर्देशक जोड़ा जब भी बदले के खूनी खेल से भरी कहानियाँ बनता है तो अपनी पिच पर खेलता नज़र आता है. और यह भी सही है कि श्रीराम राघवन नामक चमत्कार के हिन्दी सिनेमा में अवतरित होने से पहले थ्रिलर के क्षेत्र में अब्बास-मस्तान ही मांग की पूर्ति करते रहे हैं.

लेकिन रेस की कहानी में एक मूलभूत झोल है जो इसे बाज़ीगर या सोल्ज़र (मैं इन्हें अब्बास-मस्तान का सबसे महत्त्वपूर्ण काम मानता हूँ) नहीं बनने देता. आप गौर करेंगे कि बाज़ीगर और सोल्ज़र दोनों ही फिल्मों में नायक प्रत्येक हत्या के साथ अपने नायकत्व को और ज़्यादा मज़बूती से स्थापित करता है. प्रतिनायक की छवि बनाते हुए भी शाहरुख़ अपनी हर हत्या के साथ और ज़्यादा क्रूर होता जाता है और सोल्ज़र में बॉबी भी एक के बाद एक हत्या के दहला देने वाले तरीके तलाशता है. जैसे एक स्टेटमेंट की तरह बार-बार अपना नायकत्व सामने रख रहे हों. और यह काम करता है. यह दोनों ही अपने 'मर्दाना' नायकत्व को प्रत्येक क्रूरता के साथ और ज़्यादा मज़बूती से स्थापित करते हैं. इसका क्या कारण है?

इसका कारण यह है कि इन दोनों ही नायकों के पास एक बहुत ही मज़बूत मोटिव है बदले का. एक ऐसा अतीत है इनके पास जो इनका हर गुनाह माफ़ करवा देता है. ऐसा अतीत जो नायक की छवि हत्यारा होने के वावजूद खंडित नहीं होने देता. यहाँ तक कि नायक नायिका का भी अपने लक्ष्य की प्राप्ति में इस्तेमाल करता है. लेकिन जिसके अतीत में राखी जैसी माँ अकेली खड़ी हो वहां नायिका के प्रेम की क्या बिसात. वैसे भी हिन्दुस्तानी सिनेमा में 'माँ' के सामने 'प्रेमिका' ने हमेशा दोयम दर्जे की भूमिका ही पाई है. यह नायक प्रत्येक हत्या के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है.

यहीं रेस मात खा जाती है. रेस में दोनों ही नायकों के पास हत्या का कोई आधार नहीं है. खासकर फ़िल्म के नायक के तौरपर स्थापित किए गए सैफ़ (रणवीर) के पास. ऐसे में वह अपने raw look के बावजूद भी कभी पूरी तरह क्रूर नहीं हो पाता. यह नैतिक दुविधा निर्देशक द्वय के दिमाग में भी है और इसी वजह से अंत में भी रणवीर द्वारा राजीव (अक्षय) की हत्या नहीं करवाई जाती. दरअसल रणवीर के पास राजीव को मारने का कोई कारण नहीं है सिवाय इसके कि राजीव उसे मारना चाहता है और बचने के लिए वह अपने छोटे भाई को मार दे. और यह तो बड़ा टटपूँजिया सा कारण है खून का! इसीलिए नैतिक दुविधा पैदा होती है जो फ़िल्म को एक संतुष्टिदायक अंत तक नहीं पहुचने देती. अंत में एक सड़क दुर्घटना में राजीव की मौत होती है जो बड़ा फुस्स अंत है!

फ़िल्म में दोनों नायकों में से किसी एक के पास हत्या के लिए एक सौलिड मोटिव का होना ज़रूरी था. अक्षय के नकारात्मक किरदार में इसकी कोशिश तो की गई लेकिन 'सौतेला' वाला फंडा कुछ जम नहीं पाया. यूँ भी नायक जब सैफ़ को पेश किया जा रहा है तो उसका एक नायक के रूप में स्थापित होना ज़रूरी था जो नहीं हो पाया. हालांकि फ़िल्म में इसकी गुंजाइश थी. शुरूआती पन्द्रह मिनट तक जिस तरह रनिंग कमेंट्री (वायस ओवर) के साथ किदारों का परिचय करवाया जा रहा था वह थियेटर का सबसे मूलभूत गड्ढा है. इसके बजाए एक अतीत का गढ़ना कहीं कारगर होता जहाँ भाइयों का टकराव बचपन से ही स्थापित किया जाता. एक सौलिड मोटिव रचा जाता. एक माँ भी होती तो क्या कहने! ऐसी एक अदद 'माँ' आनेवाली हर हत्या को नायक का बदला बना देती है. एक क्रूर लेकिन दिलचस्प बदले की कहानी और रेस में बस इतना ही फ़ासला है.

Monday, 3 March 2008

जब वी मेट : 'किस्सा-ऐ-कसप'


आज फ़िल्मफेयर देखते हुए लगा कि यह पुरानी पोस्ट (13 नवम्बर) जो मैंने अपने ब्लॉग कबाड़ में डाल दी थी पोस्ट कर दी जानी चाहिए. आख़िर 'गीत' को एक के बाद एक पुरस्कार मिल रहे हैं! अब तो यह मुझ अकेले की तमन्ना का बयान नहीं. इससे identify करने वाले बहुत हैं. पढ़िये एक नितांत निजी टिप्पणी और उसके बाद इम्तियाज़ अली होने का अर्थ तलाशती ये 'जब वी मेट' की कसपिया व्याख्या..!

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"दिल्ली शहर एक परेशान सा ठिकाना है जो सुकून से कोसों दूर है. दोस्त भी पास नहीं, ना सितारे... सब एक फासले पर रह गया है. कमरे में अकेले 'सारे सुखन हमारे' दोहराता मैं तनहा हूँ... ना, अब मैं और सलाह नहीं दे सकता. अब रंग चाहिए. अब दूसरों की प्रेम कहानियाँ सुनना और हल तलाशना काफी हुआ. हाँ.. मुझे संगीत कुछ अधूरा सा लग रहा है. धुन तबतक अधूरी है जबतक उसे बोल मिलें. हाँ.. मेरा तराना अधूरा है. हाँ.. अब मुझे मेरी जिन्दगी में एक गीत चाहिए.."
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क्या आपने कभी किसी कहानी से प्रेम किया है? पूरी शिद्दत से किसी कविता को चाहा है? किसी उपन्यास को दिल से लगाकर रातें काटी हैं? एक प्रेम कहानी... साधारण सी... एक लड़का, एक लड़की और बहुत सारे संशय वाली. क्या कभी आप पर ऐसी छायी है कि उसका जादू आपके हर काम को अपने आगोश में ले ले? आप जब भी कोई नयी कहानी सुनाने बैठें, वही प्रेम कहानी रूप बदलकर आपकी जुबाँ पर आ जाए?

इम्तियाज़ अली
ने एक प्रेम कहानी से ऐसा ही घनघोर प्रेम किया है. पहले एक टेलीफिल्म (स्टार के लिए 'बेस्टसेलर' में). फ़िर अभय देओल- आयशा टाकिया के साथ पहली फ़िल्म 'सोचा ना था'. उसके बाद 'आहिस्ता-आहिस्ता' जो उस पुरानी टेलीफिल्म का ही रीमेक थी (इम्तियाज़ ने कहानी/स्क्रीनप्ले किया था). और अब 'जब वी मेट' आई है, उनकी दूसरी फ़िल्म. शाहिद-करीना के साथ. एक ही प्रेम कहानी रूप बदल-बदलकर... एक साधारण सी प्रेम कहानी, जिसमें एक लड़का है, एक लड़की है लेकिन "love at first sight" नहीं है. (तीनो फिल्में इसका उदाहरण हैं). शुरुआत में तो लड़के या लड़की को प्रेम भी किसी और से है (आप 'सोचा ना था' की कैरेल, 'आहिस्ता-आहिस्ता' के धीरज और 'जब वी मेट' के अंशुमान को याद कर सकते हैं.) और फिर एक सफर है साथ... कभी गोवा, कभी दिल्ली और कभी रतलाम से भटिंडा तक! जिन्दगी का सफर.. कभी कंटीले रास्ते, कभी सुहानी पगडंडियाँ. याद आता है गोपी-कृष्ण/राधा-कृष्ण प्रेम जिसको सूरदास ने साहचर्य का प्रेम बनाकर प्रस्तुत किया. यह पहली नज़र का प्यार नहीं, यह तो रोज की दिनचर्या में पलता-बढ़ता है. रोज की अटखेलियाँ इसे सहलाती है. चुहल बात को आगे बढाती है और पता ही नहीं चलता कि कब प्यार हो जाता है.

और फ़िर हमेशा.. एक भाग जाने का सुर्रा है! संशय मूल थीम है और कहानी हमेशा 'या की' टोन बनाए रखती है. यह 'कसपिया' संशय है जो 'ये प्यार है या ये प्यार है' से उपजता है. अतार्किकता हावी रहती है और कहानी हमेशा "जब आप प्यार में होते हो तो कुछ सही-ग़लत नहीं होता" जैसे 'वेद-वाक्य' देती चलती है. मैं शर्त लगाकर कह सकता हूँ कि इम्तियाज़ अपने तकिये के सिरहाने 'कसप' रखकर सोते होंगे!

ये तो थी इम्तियाज़ की प्रेम कहानी एक प्रेम-कहानी से उधार! और अब अपनी और फ़िल्म की बात. तो मुझे गीत से प्यार हो गया. ऊपर का कथन टाइम-पास बकवास नहीं एक स्वीकारोक्ति था. और गीत है ही ऐसी की कोई भी उसपर मर मिटे! करने से पहले सोचा नहीं, जो सोचा वो कभी किया नहीं.. that's geet for U! कुछ कमाल के संवाद नज़र हैं... नायिका नायक को कहती है, "तुम मेरी बहन के साथ भाग जाओ." या "मैं अपनी फेवरेट हूँ!". तमाम बातों के बावजूद नायिका का भिड़ जाने का अंदाज.. याद रहेगा. तो प्रेम कहानियो के सुखद अंत तलाशना बंद कर 'जब वी मेट' को इस नज़रिये से परखें. खासकर इम्तियाज़ द्वारा बनाये इसी प्रेम कहानी के अन्य रूपों के सामने रखकर जब वी मेट का अर्थ करें. नए अर्थ अपने आप खुलने लगेंगे.

Thursday, 28 February 2008

मिथ्या: खोई हुई पहचान की तलाश में

"मैं जान जाता कि यह एक सपना है. लेकिन यह पता चल जाने के बावजूद मैं अच्छी तरह से जानता कि तब भी मैं अपनी इस मृत्यु से बच नहीं सकता. मृत्यु नहीं -तिरिछ द्वारा अपनी हत्या से- और ऐसे में मैं सपने में ही कोशिश करता कि किसी तरह मैं जाग जाऊं. मैं पूरी ताक़त लगाता, सपने के भीतर आँखें फाड़ता, रौशनी को देखने की कोशिश करता और ज़ोर से कुछ बोलता. कई बार बिलकुल ऐन मौके पर मैं जागने में सफल भी हो जाता.

माँ बतलाती कि मुझे सपने में बोलने और चीखने की आदत है. कई बार उन्होंने मुझे नींद में रोते हुए भी देखा था. ऐसे में उन्हें मुझे जगा डालना चाहिए, लेकिन वे मेरे माथे को सहला कर मुझे रजाई से ढक देती थीं और मैं उसी खौफ़नाक दुनिया में अकेला छोड़ दिया जाता था. अपनी मृत्यु -बल्कि अपनी हत्या से बचने की कमज़ोर कोशिश में भागता, दौड़ता, चीखता."

-उदय प्रकाश की कहानी तिरिछ का अंश.


दुनिया का सबसे बड़ा डर क्या है?
...सपने आपके भीतर के डर और इच्छाओं को जानने का सबसे बेहतर ज़रिया हैं. मुझे सबसे डरावना सपना वह लगता है जहाँ मैं अकेला रह जाता हूँ. मेरे दोस्त
, मेरा परिवार, मेरी दुनिया मुझसे बिछुड़ जाते हैं. मैं अनजान भीड़ के बीच होता हूँ या अपनी जानी-पहचानी जगहों पर अकेला होता हूँ. मुझे पहचानने वाला कोई नहीं होता. ऐसे में अक्सर मैं जागने की कोशिश करता हूँ. लेकिन कभी-कभी सपने के भीतर अचानक ऐसा लगता है कि यह सपना नहीं हकीक़त है और वह अहसास खौफ़नाक होता है. हाँ, दुनिया का सबसे बड़ा डर अकेलेपन का डर होता है. अपनी पहचान के खो जाने का डर होता है. अपनी दुनिया से बिछुड़ने का डर होता है.
इस नज़रिये से देखने पर
मिथ्या का दूसरा हिस्सा एक डरावना अनुभव है. वी.के. (रणवीर) बार- बार इसे सपना समझकर जागने की कोशिश करता है. लेकिन वह सपना नहीं है. उसे समझ नहीं आता कि क्या सपना है और क्या सच? वह चिल्लाता है "तुमने कहा था कि कुछ नहीं बदलेगा." और आख़िर में वह अपनी एकमात्र याद रही पहचान से भी ठुकराया जा चुका है. वी.के. एक ऐसा शख्स है जिसका सबसे डरावना सपना सच हो गया है.
दोस्तों को नायक की मौत पर कहानी का अंत एक त्रासद अंत लग सकता है लेकिन मैं इससे असहमत हूँ. वी.के. का अंत दरअसल उसके सपने का भी अंत है. उसकी 'जागने' की निरंतर कोशिश एक बंदूक की गोली उसके भेजे में जाने के साथ ही सफल हो जाती है. गोली लगने के साथ ही उसका खौफ़नाक सपना टूट जाता है और उसे एक फ्लैश में सब याद आ जाता है. उसकी आखिरी पुकार
...सोनल में एक चैन, एक संतुष्टि, एक सुकून सुनाई देता है. यह त्रासद अंत नहीं. वी.के. एक कमाल का दोहराव रचते हुए एक 'परफैक्ट मौत' मरता है जो फ़िल्म के पहले दृश्य से उसकी तमन्ना थी. मौत उसे अपनी खोई हुई पहचान, खोई हुई जिंदगी से जोड़ देती है.
मैं यह कहने में हिचकूंगा नहीं कि फ़िल्म पर रजत कपूर से ज्यादा सौरभ शुक्ला की छाप नज़र आती है. यह मिक्स डबल्स जैसी नहीं है और भेजा फ्राई जैसी तो बिलकुल नहीं है. हाँ रघु रोमियो के कुछ अंश यहाँ-वहां दिख जाते हैं. मरीन ड्राइव (नेकलेस) के फुटपाथ पर बैठे अथाह/अनंत समंदर की तरफ़ देखते और दारु पीते वी.के. की छवि सत्या के भीखू की याद दिलाती है. जैसा मदनगोपाल सिंह कहते हैं यह उत्तर भारत के छोटे शहरों से वाया दिल्ली (
NSD) होते मुम्बई आए लड़कों की पौध का दक्षिण भारत के उन्नत तकनीशियन निर्देशकों से लेखक के तौर पर मिलन से उपजा सिनेमा है. मिथ्या मुझे अनेक पूर्ववर्ती फिल्मों की याद दिलाती रही जिनमें से कुछ की चर्चा मैं यहाँ करना चाहूँगा.

सत्या- फ़िल्म पर RGV स्कूल की छाप साफ नज़र आती है. इसका सीधा कारण फ़िल्म से लेखक के रूप में सौरभ शुक्ला का जुड़ा होना है. यह मुम्बई के अंडरवर्ल्ड को देखने की नई यथार्थवादी दृष्टि थी जो सत्या में उभरकर सामने आई थी. यह मुम्बई के अंडरवर्ल्ड को देखने की नई यथार्थवादी दृष्टि थी जो सत्या में उभरकर सामने आई थी. विनय पाठक ने ओशियंस सिने फेस्ट में मिथ्या के प्रीमियर में कहा भी था कि डॉन लोग कोई चाँद से नहीं आए हैं. वे भी हमारे-आपके जैसे इंसान हैं. यह दृष्टि सौरभ शुक्ला, अनुराग कश्यप, जयदीप सहनी जैसे लेखकों की बदौलत आई थी और आज 'फैक्टरी' की बुरी हालत के पीछे इन लेखकों का अलगाव एक बड़ा कारण माना जा रहा है. मिथ्या में यह दृष्टि इंस्पेक्टर श्याम (ब्रिजेन्द्र काला) के किरदार में बखूबी उभरकर आई है. एक बेहतरीन अदाकार जिसके काम की पूरी तारीफ ज़रूरी है बिना किसी हकलाहट के!

डिपार्टेड- मार्टिन स्कोर्सेसी की यह थ्रिलर दो परस्पर विरोधी योजनाओं के उलझाव से निकली कहानी है. मुझे वी.के. की दुविधा में लिओनार्दो की दुविधा का अक्स दिख रहा था. lost identities की कहानी के रूप में और अपनी खोई पहचान वापस पाने की लड़ाई के तौर पर यह दोनों फिल्में साथ रखी जा सकती हैं. कुछ और नाम भी याद आ रहे हैं नेट और बरमूडा ट्राएंगल जैसे. कभी विस्तृत चर्चा में बात करेंगे.

दिल पे मत ले यार- यह मिथ्या की नेगेटिव है. इसमें सपना खौफनाक नहीं है, सपने के टूटने के बाद की असल तस्वीर खौफनाक है. हिन्दी सिनेमा का सबसे त्रासद अंत. मिथ्या का अंत मौत के बावजूद सुकून देता है. दिल पे मत ले यार का अंत कड़वाहट से भर देता है. असल जिंदगी अपनी तमाम ऐयाशियों के साथ किसी भी खौफनाक सपने से ज़्यादा भयावह है. मिथ्या के अंत में नायक की मौत सुकून देने वाली है. सुकून इस बात का कि आखिरकार वह अपने भयावह सपने की कैद से आजाद हो गया है. इसके विपरीत दिल पे मत ले यार के अंत में दुबई में बैठे अरबपति डान रामसरन और गायतोंडे सफलता के नहीं, मौत के प्रतीक हैं. मासूमियत की मौत, भरोसे की मौत, इंसानियत की मौत. मुम्बई शहर को आधार बनाती दो बेहतरीन फिल्में जो उत्तर भारत से आए दो युवकों के भोले सपनों और महत्वाकांक्षाओं की किरचें बिखरने की कथा को मायानगरी के वृहत लैंडस्कैप में चित्रित करती है. मुम्बई शहर पर चर्चित और प्रशंसित फिल्में कम नहीं लेकिन यह दोनों अपेक्षाकृत रूप से कम चर्चित फिल्में 90 के बाद बदलते महानगर और उसके जायज़- नाजायज़ हिस्सों पर तीखा कटाक्ष हैं. इन्हें उल्लेखनीय हस्तक्षेप के तौर पर दर्ज किया जाना चाहिए.

अंत में रणवीर शौरी. मेरी पसंद. उसमें मेरे जैसा 'कुछ' है. मिथ्या में पहले आप उसके लिए डरते हैं, फ़िर उसके साथ डरते हैं और अंत में उसकी जगह आप होते हैं और आपका ही डर आपके सामने खड़ा होता है. यह साधारणीकरण ही रणवीर के काम की सबसे बड़ी बात है. कुछ दृश्यों में उसका काम आपपर हॉंटिंग इफेक्ट छोड़ जाता है. जब भानू (हर्ष छाया) उसे अपने भाई का कातिल समझ कर मार रहा है वहां उसकी पुकार "भानू, मैं तेरा भाई हूँ." एक ना मिटने वाला निशान छोड़ जाती है. एक ही फ़िल्म में हास्य और त्रासदी के दो चरम को साधकर उसने काफी कुछ साबित कर दिया है.

मिथ्या देखा जाना चाहती है. उसकी यह चाहत पूरी करें.