Saturday 24 November 2007

प्रेम के पक्ष में...

साल 1986. राजीव गाँधी ने ये दाँव खेला था. मुस्लिम कट्टरपंथियों को फायदा पहुँचाने के लिये शाहबानो केस में फैसला पलटा गया और हिंदु कट्टरपंथियों को अयोध्या में ताला खोल चुप कराया गया. कुछ दोस्त शाहबानो केस को मुस्लिम तुष्टीकरण कहते हैं और ये भूल जाते हैं कि आधी मुस्लिम आबादी उन महिलाओं की है जिनका हक़ छीना गया. और सच शायद यही है. हर समुदाय में वो महिला ही तो है जो हर बार इस प्रकार के 'तुष्टीकरण' के नतीजे भुगतती है.
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साल 2007. प. बंगाल में CPM की सरकार आलोचना के घेरे में है. नंदीग्राम में जो हुआ और जो हो रहा है वह हमारी आँखें खोलने के लिये काफ़ी है. हम सभी जो अपने आपको मार्क्सवाद से किसी ना किसी तरह जुडा पाते हैं. लेकिन कुछ और भी है जिसे यूँ नहीं छोड़ा जा सकता…
पहले नंदीग्राम और फ़िर रिज़वान का मामला, कहा गया कि CPM का 'मुस्लिम वोट बैंक' टूट रहा है. और फ़िर कल कलकत्ता में हुई हिंसा.. और आज रात मैं TV पर देख रहा हूँ कि तस्लीमा को रातोंरात कलकत्ता छोडना पडा है. शायद हिंसा की आशंका.. शायद सरकार की सलाह पर.. पता नहीं. एक बार फ़िर एक महिला ने 'तुष्टीकरण' का नतीजा भुगता है. शायद अब CPM का 'मुस्लिम वोट बैंक' बच जाये...
मैं व्यक्तिगत रूप से तसलीमा के लेखन का प्रशंसक नहीं रहा हूँ. लेकिन "हमारे समाज में हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का हक़ है" इसके पक्ष में जम के खडा हूँ. और अपनी तरह से जीने का हक़ है चाहे वो सबको रास आये या न आये. और हमारे समाज को इतना संवेदनशील तो होना ही चाहिये कि वो तसलीमा को भी उतनी ही जगह (space) दे जितना मुझे मिली है. और ये लडाई उसी 'Room for one's own' के लिये है.
……
तसलीमा का कलकत्ता से जाना सिर्फ एक घटना भर नहीं है. ये एक प्रेमी-प्रेमिका का बिछुडना है. तसलीमा ने कलकत्ता से प्रेम किया है. वो उसके लिये तड्पी हैं, उसे उलाहना दिया है, उससे रूठी हैं, उसे मनाया भी है. वो उन्हें अपने घर की याद जो दिलाता है. बीता बचपन, गुज़रा साथी, छूटा दोस्त…
पढिये ये कविता 'कलकत्ता इस बार...' जो उन्होंनें हार्वर्ड विश्वविद्यालय में रहते हुये लिखी थी. भूमिका में वे लिखती हैं, "चार्ल्स नदी के पार, केम्ब्रिज के चारों तरफ़ जब बर्फ़ ही बर्फ़ बिछी होती है और मेरी शीतार्त देह जमकर, लगभग पथराई होती है, मैं आधे सच और आधे सपने से, कोई प्रेमी निकाल लेती हूँ और अपने प्यार को तपिश देती हूँ, अपने को ज़िन्दा रखती हूँ. इस तरह समूचे मौसम की नि:संगता में, मैं अपने को फिर ज़िन्दा कर लेती हूँ."

आज इस कविता की प्रासंगिकता अचानक बढ गयी है...



कलकता इस बार...
इस बार कलकता ने मुझे काफी कुछ दिया,
लानत-मलामत; ताने-फिकरे,
छि: छि:, धिक्कार,
निषेधाञा
चूना-कालिख, जूतम्-पजार
लेकिन कलकत्ते ने दिया है मुझे गुपचुप और भी बहुत कुछ,
जयिता की छलछलायी-पनीली आँखें
रीता-पारमीता की मुग्धता
विराट एक आसमान, सौंपा विराटी ने
2 नम्बर, रवीन्द्र-पथ के घर का खुला बरामदा,
आसमान नहीं तो और क्या है?
कलकत्ते ने भर दी हैं मेरी सुबहें, लाल-सुर्ख गुलाबों से,
मेरी शामों की उन्मुक्त वेणी, छितरा दी हवा में.
हौले से छू लिया मेरी शामों का चिबुक,
इस बार कलकत्ते ने मुझे प्यार किया खूब-खूब.
सबको दिखा-दिखाकर, चार ही दिनों में चुम्बन लिए चार करोड्.
कभी-कभी कलकत्ता बन जाता है, बिल्कुल सगी माँ जैसा,
प्यार करता है, लेकिन नहीं कहता, एक भी बार,
कि वह प्यार करता है.
चूँकि करता है प्यार, शायद इसीलिये रटती रहती हूँ-कलकत्ता! कलकत्ता!
अब अगर न भी करे प्यार, भले दुरदुराकर भगा दे
तब भी कलकत्ता का आँचल थामे, खडी रहूँगी, बेअदब लड्की की तरह!
अगर धकियाकर हटा भी दे, तो भी मेरे कदम नहीं होंगे टस से मस!
क्यों?
प्यार करना क्या अकेले वही जानता है, मैं नही?

-तसलीमा नसरीन
'कुछ पल साथ रहो...' से (अनुवाद- सुशील गुप्ता)

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