Saturday, 2 February 2008

बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी


मीडियानगर 03 पर बातचीत
फ़रवरी की शाम छ: बजे,
ऑक्सफ़र्ड बुक स्टोर, कनॉट प्लेस, दिल्ली.


फिज़ाओं में क्या था:- वक्ताओं के पीछे एक नारंगी रंग की दीवार थी जिसपर बहुत सारे शब्द बिखरे हुए थे. ये मुझे 'तारे ज़मीन पर' के शुरूआती दृश्य की याद दिला रहा था जिसमें हमारा कुल-ज़मा लिखा पढ़ा सब कुछ एकसाथ बरसता सा लगता है. हाँ, बीच में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था vernacular. कई बार ये बेतरतीब चुनाव की प्रणाली भी कितने अर्थ व्यंजित करने लगती है ना. वैसे मानने वाले ये भी मान सकते हैं कि वो 'vernacular' वहाँ यूं ही नहीं था. क्योंकि हर बेतरतीब नमूने के पीछे एक नजरिया होता है.
पार्श्व में बार-बार NDTV के नये शाहकार 'रामायण' की ध्वनि "जय श्री राम" गूँज उठती थी और सामने बैठे NDTV के अविनाश सिर्फ़ अपनी मौजूदगी से ही एक कमाल का विरोधाभास पैदा कर रहे थे. अब जब किसी संवाद का माहौल ही ऐसा कोलाजनुमा हो गया हो तो बातचीत को तो उस तरफ़ जाना ही हुआ!

बात-चीत:- अनुवाद पर हुई बातों को ज़रा देर के लिए छोड़ दें तो आनंद प्रधान की बातों से निकली बात ही आगे बढ़ती गई. बात ठीक थी और सवाल भी कि "आज का हमारा मीडिया आखिर जा कहाँ रहा है?" लेकिन मुझे बार बार लगता रहा कि जो छोटी पहलकदमियाँ इसके बरक्स खड़ी होंगी उनपर बात होती तो कैसा होता. लेकिन इस 'यूं होता तो क्या होता' का अब क्या जवाब...
जैसे ये भी एक सवाल है कि हमें वहाँ ये बात करने की बजाए कि mainstream media क्या और क्यों छाप रहा है ये बात करनी चाहिए थी कि medianagar में क्या छपा? सीधा कहूँ तो हमें ज़रूर पहले दोनों वक्ताओं राहुल और देबश्री के लिखे पर बात करनी चाहिए थी जो हमनें नहीं की. 'मल्लिका सेहरावत' और 'राखी सावंत' के कारनामों को सिनेमा की ख़बर कहकर दिखाते मीडिया को देबश्री का मुम्बई सिनेमा पर किया काम जवाब हो सकता है. या कम से कम एक विकल्प तो हो ही सकता है. तो उसपर बात करनी तो रह ही गयी. और मैं भी बात ना करने वालों में से एक था तो ये इल्जाम मुझपर भी है. उम्मीद है कि आगे होने वाली बातचीत इस मुद्दे को साध लेंगी.

ठोस:- संजीव के तरकश में कई पैने तीर थे जो उन्होंने चलाये. मुझे जो बात सबसे ज्यादा सोचने वाली लगी उसका ज़िक्र कर रहा हूँ. इसलिए भी कि इसका ठीक जवाब मुझे भी नहीं मालूम. उन्होंने कहा कि पूरे अंक की भाषा का स्वाद एक जैसा है. ये मानते हुए कि ये स्वाद बहुत स्वादिष्ट है ये भी मानना पड़ेगा कि एकरसता कभी अच्छी नहीं लगती. उनका कहना था कि ऐसा लगता है जैसे सारा अनुवाद एक ही व्यक्ति ने कर दिया हो. अब मैं इस बहस में नहीं जा रहा कि उनका ये आकलन medianagar के बारे में कितना सही है. मेरा सवाल ज्यादा बड़ा है जो और दिमागों में भी आया होगा. हर पत्रिका समय के साथ अपना एक ख़ास कलेवर/एक ख़ास आकार लेती है. यही उसकी पहचान बनाता है. अब पहला सवाल तो ये है कि क्या भाषा भी इस पहचान का एक हिस्सा है? और दूसरा ये कि इसका एक ख़ास स्वरूप में ढलकर पत्रिका की पहचान बनना ज्यादा ठीक है या भाषागत वैविध्य ज्यादा ज़रूरी है? इस सवाल को यूं देखिये कि क्या 'पहल' 'तद्भव' 'हंस' में भी भाषागत एकरसता दिखती है? और अगर हाँ तो वो क्यों और कितनी ठीक है?

दिल की बात:- मेरे लिए तो वो एक निजी कोलाज था. मेरे दो भूतपूर्व गुरु मुझे मेरे 'रंग दे बसंती' ( अर्थात 'क्या करें, क्या ना करें' वाले दिन) दिनों की याद दिला रहे थे. आनंद प्रधान IIMC में बीते एक महीने की और देवेन्द्र चौबे JNU की जागती रातों की याद ताज़ा कर गए. और इस तस्वीर को मुकम्मल करने अचानक पीछे खड़ा आदित्य राज कौल दिखा (शायद किताब ख़रीदने आया था) और उसके तुरंत बाद राहुल ने बोलते हुए शिवम् विज का नाम लिया. medianagar में जो लेख आपने पढ़ा वो इस फ़िल्म से मुतभेड़ की शुरुआत थी. आगे की कहानी में ये सभी नाम पात्र के रूप में आते हैं. उम्मीद है 'एक साल रंग दे बसंती' शीर्षक वाला ये निबंध जल्दी ही आप और मैं पढ़ पाएंगे. आमीन!

No comments: