
" Idea! लेकिन अभी पूरी तरह आया नहीं है." सरकार राज में उपस्थित कैरीकैचर खलनायकों की पूरी जमात में से एक गोविन्द नामदेव (जिनकी मूँछें इतनी अजीब हैं कि आप उन्हें कम और उनकी मूंछों को ज़्यादा देखते हैं. पेंसिल से बनाई हैं क्या!) का यह संवाद ही सरकार राज की पूरी कहानी है. इस Idea पर थोड़ी और मेहनत इसे सरकार से बेहतर फ़िल्म बना सकती थी. लेकिन जैसा जय को लगता है कि फ़िल्म कुछ जल्दबाज़ी में बना दी गई है, ठीक लगता है. ऐसे में angled और close-up shots पर, कलाकारों के अलग-अलग mannerisms पर तथा पार्श्व संगीत पर तो ध्यान दिया गया लेकिन लगता है कि सिर्फ़ इन्हीं पर ध्यान दिया गया. इन सभी तकनीकों से प्रभाव का निर्माण तो होता है लेकिन सिर्फ़ प्रभाव का ही निर्माण होता है. मेरे ऊपर के वाक्यों में जैसा उकताऊ सा दोहराव है आख़िर में सरकार राज भी सरकार का ऐसा ही उकताऊ दोहराव बनकर रह जाती है जहाँ कोई पुराना किरदार पिछली फ़िल्म से आगे ठीक तरह से विकसित नहीं होता. सवा दो घंटे की मशक्कत के बाद अंत में आपके पास ढेर सारे रामूप्रभाव ('अँधेरा कायम रहे' और इसबार साथ में पीलापन भी! पीला पीला हो पीला पीला... एकदम शाहरुख़ और सैफ style!) और भविष्य में सरकार-3 की उम्मीद ('चीकू को फ़ोन लगाओ' और क्यों था यार!) के सिवा कुछ नहीं बचता.
सरकार के अमिताभ की सबसे बड़ी खा़सियत थी उसकी खामोशी. वही उसकी ताक़त थी. 'शक्ति'. जब बिस्तर पर घायल पड़े सरकार को शंकर आकर कहता है कि मैंने भाई को मार दिया, सरकार कुछ नहीं कहते. लेकिन सरकार का वो चेहरा हमें हमेशा याद रहता है. लेकिन सरकार राज इससे उलट है. सरकार राज में दोनों की सोच है कि, 'हम तो फ़ेल होना चाहते थे. तुमने हमें पास कैसे कर दिया? लो हम फ़िर वही परीक्षा देंगे. अब पास करके बताओ!' दोनों बाप-बेटे मिलकर 'विष्णु के मामले में मुझसे गलती कहाँ हुई' और 'बाबा मुझे कोई पछतावा नहीं है' जैसे पिछली फ़िल्म के छूटे तंतू discuss करते हैं और एक अच्छे ड्रामा में तब्दील हो सकने की सम्भावना रखने वाले Idea को मेलोड्रामा में तब्दील कर देते हैं (ले देकर साला एक के के था उसे भी पिछली फ़िल्म में मार डाला) कोई क़सर बाकी न रहे इसलिए सरकार बार बार आंसू बहाते हैं. न जाने ये सरकार का रोना reality shows की देखादेखी है या लालकृष्ण आडवाणी की प्रेरणा से है. (लेकिन सरकार तो बाल ठाकरे से प्रेरित थी ना? लगता है फ़िर जल्दबाज़ी में घालमेल हो गया!) सरकार ना सिर्फ़ आडवाणी माफ़िक रोते हैं बल्कि आख़िर में बहु ऐश्वर्या को (और हैरान परेशान दर्शक को भी) पूरा plot समझाने की ज़िम्मेदारी भी उनपर ही है. वे सरकार में जो-जितनी बकवास नहीं कर पाये थे सारी सरकार राज में करते हैं. मुझे तो लगता है कि अपने henchmen बाला के हिस्से के सारे संवाद भी बिचारे सरकार को ही बोलने पड़े हैं!
लेकिन सरकार राज की जल्दबाज़ी का सबसे बड़ा शिकार है शंकर नागरे (अभिषेक बच्चन). फ़िल्म के लेखक, निर्देशक यह तय ही नहीं कर पाये हैं कि इस आधुनिक महाभारत में शंकर नागरे अर्जुन है या अभिमन्यु? नतीजा यह कि शंकर का किरदार अर्जुन की उग्र वीरता और चालाकी तथा अभिमन्यु की इमानदार पात्रता और भोलेपन के बीच में झूलता रहता है. उसका पूरी फ़िल्म में बार-बार 'सब संभाल लूँगा' का दावा अर्जुन रुपी अदम्य योग्यता है तो आख़िर में चक्रव्यूह में फँसकर मौत उसे फ़िर भोले अभिमन्यु के खाँचे में पहुँचा देती है. फ़िल्म शुरू से ही उसका चित्रण कुछ 'नादान' रूप में करती तो अभिमन्यु पूरा जीवन पाकर मरता और ये किरदार का झोल यूँ ना अखरता. लेकिन बाज़ार को अभिषेक अभिमन्यु के रूप में हजम नहीं होता शायद. आज बाज़ार को अर्जुन रुपी नायक अभिषेक चाहिए. character development गया भाड़ में.
ऐसे में आश्चर्य नहीं की सबसे बेहतरीन काम उस अदाकार के हिस्से आया है जिसके काँधों पर पिछली फ़िल्म का बोझा नहीं है. ऐश्वर्या राय

मैं एक वक्त Orkut पर 'आई हेट ऐश्वर्या राय' community का सदस्य रहा हूँ. आज भी दोस्तों में ऐश का प्रशंसक नहीं गिना जाता हूँ. लेकिन सरकार राज देखने के बाद मेरा मानना है कि अगर यह फ़िल्म किसी कलाकार के फिल्मी सफ़रनामे में एक नया आयाम जोड़ती है तो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ ऐश्वर्या हैं. उनका कार्पोरेट रूप बिपाशा से ज़्यादा convincing है. अब ये बात और है कि शायद ख़ुद ऐश्वर्या राय (बच्चन) यह निष्कर्ष सुनकर सबसे ज़्यादा दुखी हों!
एक सुझाव है. अगर आप मुम्बई पर एक बेहतरीन फ़िल्म देखना ही चाहते हैं तो 'आमिर' देखिये. एक ऐसी फ़िल्म जिसे देखने एक एक हफ्ते बाद भी जिसका review नहीं लिख पाया हूँ. इतना कुछ है कहने को कि कहना ही मुश्किल हो जाता है. फ़िर घनानंद याद आते हैं, "अच्छर मन को छरै बहुरि अच्छर ही भावे". कोशिश जारी है.