Wednesday 9 January 2008

"मामूली चीजों के देवता का आगमन."


मामूली चीजों के देवता का आगमन. लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा 2007.
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यकीन मानिये 2007 शाहरुख खान का साल नहीं था. हाँ ये सच है कि साल की दो सबसे कमाऊ फ़िल्में उनके नाम हैं लेकिन यकीनन साल 2007 की पहचान king khan से नहीं, kabeer khan से होगी. और यही चक दे का कबीर खान हमें उस हौले से होती सुगबुगाहट की आवाज़ सुनाता है जो धीरे-धीरे तेज़ हो रही है. शोर बन रही है. केन्द्र टूट रहा है. परिधि के बाशिंदे केन्द्र में आ रहे हैं. शाहरुख ही हमें बताते हैं कि इस साल का मुम्बईया सिनेमा महानायक की स्तुति नहीं, आम आदमी का जयगान है. सबूत भी उन्हीं से लीजिये! मैं यहाँ कबीर खान के हवाले से दो बातें कहना चाहूँगा:-
1. चक दे इन्डिया जितनी ज़िद्दी कोच कबीर खान की फ़िल्म थी उतनी ही वो उन तेरह अनजान चेहरों की फ़िल्म भी थी जिनकी ताज़गी से सिनेमा जगत अभी तक चमत्कृत है. और कबीर खान भी तो उस मीर रंजन नेगी का आईना था जो जिन्दगी की लड़ाई हारने वालों का प्रतिनिधित्व करता है. उसका वो खटारा बजाज स्कूटर कौन भूल सकता है जिसे वो दिल्ली की चौड़ी सड़कों पर बेधड़क चलाता रहा.
2. King khan के ही हवाले से ये भी बताता चलूं कि साल की सबसे बड़ी हिट OSO का नायक बिगडैल स्टार पुत्र ओम कपूर (OK) नहीं था, एक जूनियर आर्टिस्ट और जिन्दगी की लड़ाई हारने वाला अदना सा इंसान ओम प्रकाश मखीज़ा ही था. ओम प्रकाश मखीज़ा ही OSO का नायक था. आप ओम कपूर पर हँसेंगे, लेकिन ओम प्रकाश मखीज़ा के साथ रोयेंगे. और OK के किरदार की असल व्याख्या हम वक्त आने पर करेंगे ही!
ब्लैक फ़्राईडे के बादशाह खान से मनोरमा सिक्स फ़ीट अन्डर के सतवीर सिंह तक यह उसी अदना से इंसान की कथा है जिसे अब परिधि पर बैठना मंज़ूर नहीं. नये केन्द्रों की संरचनाओं के साथ ही बालीवुड अधिक से अधिक व्यक्तिगत पहचानों को टटोल रहा है, ’लोकेल’ की कहानियां कह रहा है, शहर की हर सिम्त को खोल रहा है. मैं 2007 में हिन्दी सिनेमा के साथ हुई कुछ अच्छी बातों को यहाँ लिख रहा हूँ...

पैशन फॉर सिनेमा. सुधीर मिश्रा के साथ पूरी टोली है अनुराग कश्यप, ओनीर, नवदीप सिंह जैसों की जो www.passionforcinema.com पर जमकर खड़े हैं और यशराज कैम्प से लोहा ले रहे हैं. कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि साल की सबसे कमाल की फ़िल्में/खूबसूरत फ़िल्में/प्रयोगात्मक फ़िल्में यहीं से निकली हैं. पिछले एक साल में मैंनें यहां कई बेहतरीन लेख और cinema debates पढी़ हैं. आप नमूना देखना चाहें तो अभी PFC पर अनुराग का लिखा लेख देख सकते हैं. अनुराग कश्यप ने हमें तारे ज़मीन पर के असली हीरो से मिलवाया है! हिन्दी सिनेमा में आ रही एकध्रुव अवधारणा (यशराज के सौजन्य से!) को तोड़ने की कामयाब कोशिश.
पिछले साल मैंनें रंग दे बसन्ती और मुन्नाभाई की धूम के सामने जिस फ़िल्म को MOVIE OF THE YEAR के तमगे से नवाज़ा था वो थी खोसला का घोसला. जयदीप की लिखी यह कहानी अपने अन्दाज़ में निराली ही थी. लेकिन जैसा मैंनें कहा, साल 2007 परिधि के मुख्यधारा की ओर आने का साल है. और ऐसे में किसी एक फ़िल्म को MOVIE OF THE YEAR कहना उस बहुलता का नकार होगा जिसे हम इस साल की खासियत कह रहे हैं. और यह तब और भी ज़रूरी हो जाता है जब आपको KKG की सुगंध अनेक फ़िल्मों में बिखरी मिले. तो आईये देखें 2007 हमें क्या देकर जा रहा है. मैं इसबार शुरुआत 7 ख़ास फिल्मों की बात से करूँगा. वो सात फिल्में जिन्होंने मेरी नज़र में इस साल को पहचान दी. जो मुझे अब भी मेरे दिल के क़रीब लगती हैं. इस चुनाव का एकमात्र आधार मेरे दिल की धड़कन है जो इस लिस्ट की हर फ़िल्म में कहीं ना कहीं तेज़ हुई है. और क्योंकि ये केवल एक व्याख्या भर है कोई जासूसी उपन्यास नहीं, इसलिए पहले नाम:-
1. Black Friday
2. Life in a.. Metro
3. The Namesake
4. Jonny Gaddar
5. Manorama Six Feet Under
6. Jab we Met
7. Khoya Khoya Chand
आनेवाले दिनों में आप इनमें से हर फ़िल्म पर मेरी विशेष टिप्पणी के साथ और बहुत सी मजेदार बातें पढ़ेंगे. और क्योंकि मेरा नेट पर आना-जाना अभी तक अनियमित है इसलिए आपको इंतज़ार का मज़ा भी भरपूर मिलेगा! फ़िर भी मुझे उम्मीद है कि आप इंतज़ार करेंगे...

12 comments:

Varun said...

साल सचमुच आम आदमी का रहा...आप शायद 'भेजा फ्राई' भूल गए इसी theory के एक और उदाहरण में. पर सच कहूँ तो मुझे ये साल कुछ ठंडा ही लगा सिनेमाई evolution के नज़रिए से. ७ अच्छी फिल्में ढूंढना भी मुश्किल दिख रहा है...और उसमें भी Metro जैसे half-hearted attempts हैं. Black Friday इस साल की फिल्म नहीं और 'खोया खोया चाँद' अपने scale के दम पे ज़्यादा है और मर्म के दम पे कम! पर ये सच है - छोटे शहर, आम आदमी और रोज़मर्रा के किरदारों की दिक्कतें अब centrestage आने लगी हैं.

Shaveta said...

jahan tak meri drishti hai..tum kissi haad tak bilkul sahi keh rahe ho per mei soch rahi thi agar hum hindi cinema ke iss pehlu ko chod ke un naye chehro ke bare mei sochein toh 2007 ka saal bhi bahut badiya nazar aayega. jitne naye chehre iss saal mei dikhein hai, aur jo kalakari unhone apni filmo mei dikhlai hai, woh wakai mei kabile tareef hai.

मुन्ना कुमार पाण्डेय said...

bbat ki jad badhiya hai aur saath hi RANBIR,RAHUL,VINAY,IRFAN,jaiso par bhi kuch likho kyonki ye ve artist hain joinhone hero hone ki sharton aur mayne ko badal diya hai..

Mihir Pandya said...

दरअसल मैंने अपनी लिस्ट ख़ास पसंद के आधार पर बनाई थी. जिसमें मैं 'भेजा फ्राय' को शुद्ध नक़ल होने की वजह से शामिल नहीं कर पाया. ये मेरी व्यक्तिगत हिचक थी. नहीं तो वो तो मेरी theory की सच्ची प्रतिनिधि है. हाँ अदाकारी की बात करें तो विनय पाठक ही साल के सबसे बड़े सितारे हैं. मैं तो उनपर अलग से पूरा ब्लॉग लेख लिखना चाहता हूँ! ये दोनों वहीं थे (वरुण से अच्छा इस बात को और कौन जानता है!) लेकिन पिछले दो सालों ने मुख्यधारा के सिनेमा का इनसे संगम करवा दिया.
मुन्ना ने बिल्कुल ठीक कहा, ये नए अदाकार हमारी 'हीरो' की परिभाषा बदल रहे हैं. इनपर बात होनी ही चाहिए.

गंगा ढाबा said...

एक और नाम जोडिए - शाद अली का. हालाँकि पिछ्ले साल झूम नहीं पाए जनाब लेकिन बन्टी और बबली को क्या उतारा था मैदान में ! देश के हर फ़ुर्सतगंज की बोर दोपहरी में आँखें मींचते-उठते हमारे हम-उम्रों को और डूबते-उतराते अभिषेक के कैरियर को एक ठिकाना दिया हो जैसे.

लेकिन बाज़ार अपनी पहुँच बढाने के लिये बहुत कुछ करता है मिहिर बाबू ! चे ग्वेरा छाप चड्ढी-बनियान से लेकर सफ़दर हाशमी के हल्ला बोल तक बिकता है. हिन्दी में चैनल खोलने से लेकर भोजपुरी में एक साथ हालीवुडी फ़िल्में रीलीज़ करने तक. मैनेजमेण्ट की डिग्री लेकर ठन्डा का मतलब समझाने वाले खूब समझते हैं कि अब कौन से नये सपने बेचने हैं. बिम्बों की बोरियत तोडने और पुराने बिम्ब बेचने वालों को रास्ता दिखाने का काम किया ज़रूर है इन लोगों ने - लेकिन बिम्ब के स्तर पर ही. माल वही है मेरे भाई.

मध्यम वर्ग खरीदार है तो चीज़ें उसी के लिए बनेंगी-बिकेंगी. टाटा की लखटकिया कार से लेकर खोसला के घोसला तक. लेकिन टाटा और प्रसून जोशी को दी गयी हर बौद्धिक-आर्थिक सब्सिडी का बोझ अन्ततः हमीं पर पडना है साहेब.

गंगा ढाबा said...

और सही पहचाना आपने. ये भेजा फ़्राई कोई नया आईटम नहीं. बण्टी और बबली भी नकल ही थी. मध्यवर्ग/श्रमिकवर्ग के एक तबके/ को क्रयशक्ति देकर बाज़ार में शामिल करने की इस प्रक्रिया से पश्चिमी देश गुज़र चुके हैं. ब्रिटेन का ’न्यू लेबर’ आज किसी भी जनवादी माँग के आडे ही आता है.

Mihir Pandya said...

बंटी और बबली की कहानी लिखने वाले आदमी का नाम जयदीप साहनी था. और जब मैं 'खोसला का घोंसला' की खासियत बताता हूँ तो उसमें 'बंटी और बबली' की तारीफ शामिल है.

सुन्दरम मैं इस बात से बखूबी वाकिफ़ हूँ की यह मध्य वर्ग के तुलनात्मक रूप से निचली पायदान पर खड़े समूह को बाज़ार में खरीददार के तौर पर शामिल करने की रणनीति है. लेकिन मुझे लगता है कि 'खोसला का घोंसला' जैसी फिल्मों को इस नज़र से भी देखा जाना चाहिए कि वह मध्यवर्ग के इस द्वंद्व को कैसे observe करती हैं. जैसे हम साहित्य को एक text के तौर पर पढ़ते हैं उसी तरह फ़िल्म भी कई बार (ना चाहते हुए भी) अपने समय के विरोधाभासों को अपने भीतर समेटे होती है.

Mihir Pandya said...

ब्रिटेन के 'लेबर' वाला उदाहरण बहुत ठीक है. भारत में 90 तक चली आती 'लोककल्याणकारी राज्य' की अवधारणा भी और क्या थी! और इस नज़र से देखें तो जयदीप साहनी और प्रसून जोशी करण जौहर, आदित्य चोपड़ा से ज्यादा ख़तरनाक हैं. (कुछ साल पहले जब हमारे कवि प्रधानमंत्री चलती-फिरती हालत में थे उस वक़्त एक दोस्त ने कहा था, "वाजपेयी आडवानी से ज्यादा ख़तरनाक हैं क्योंकि इनका मुहावरा भ्रम पैदा करता है. आडवानी की सोच सबके सामने है -खुल्ला खाता. तो लड़ना आसान है. लेकिन जहाँ सामनेवाला लिबरल होने का भ्रम पैदा करे वहाँ मुकाबला ज्यादा मुश्किल है.")

मुझे जो बात खटक रही है वो यह है कि आख़िर में 'हम' लिख लेने से ही क्या हम उस मध्य वर्ग से बाहर होकर लखटकिया कार के 'मारों' में शामिल हो जायेंगे?

गंगा ढाबा said...

पॉपुलर फ़िल्मों को ’पढ़ने’ की ज़रुरत आग्रही मैं भी हूँ और इसमें आपकी काबलियत व रूचि का कायल भी. बढ़िया ब्लॉग है. लगे रहिए.

यार मुझे तो पहेली और ओम शान्ति ओम जैसी फ़िल्में रुचती हैं जो कोई दस्तावेज होने का दावा नहीं करतीं और ना ही स्वदेश मार्का भलमनसाहत परोसती हैं. लेकिन होता बहुत कुछ है इनमें जैसा कि आपने कहा फ़राह खान जैसों की अनिच्छा के बावज़ूद. लेकिन इनके सेलेब्रेशन से बचना होगा. वैसे बाजारु हाथ तो फ़ारेनहाईट 9/11 का भी मसाला फ़िल्मों से कम नहीं होता.

पॉपुलर फ़िल्मों पर कुछ थ्योरेटिकल टेक्स्ट जुटाया था, लेकिन पढ़ नहीं पाया. इन दिनों तो सारा समय बच्ची को ठंड से बचाने में निकल रहा है.

गंगा ढाबा said...

हम नैनो के तीर से बाहर हैं ये मुझे नहीं दिखता. 850 करोड़ की सीधी सब्सिडी, नैनो को घर में बाँधने का महीनावार खर्च और फ़िर नैनो के लिये ज़रुरी सड़क वगैरह के इन्फ़्रास्ट्रक्चर का बोझ हमारे हिस्से ज़रा भी न आयेगा?

नैनो-विरोध को अमीरों की जलन कहकर झिड़क देने की कस्बाई गुत्थी भी मुझसे नहीं सुलझती. आर्थिक असुरक्षा और लोन के बल टिका हमारा हाई पिच उपभोग हमारे लगातार मध्यवर्ग बने रहने की कार्पोरेटी साजिश की गारन्टी है. दूसरी तरफ़ पर्यावरण के प्रति हमारी कम्पिटीटीव गैर-जिम्मेवारी अमीरों के मुकाबले हमारे मजबूत होने का रास्ता नहीं. पर्यावरण भी इतना नेचुरल नहीं है. उसके नुकसान की चिन्ता हमें ही ज़्यादा करनी होगी क्योंकि ठन्ड-गर्म-बरसात भी हम पर ही ज़्यादा गुजरेगी. कर्पोरेट हित हमेशा शॉर्ट-टर्म होते है.

वर्ग-संघर्ष को एक तबके द्वारा दूसरे को धकिया कर उसी कार, एटम बम और चाँद पर कॉलोनी के रेस को जीतने के सरलीकृत बोल्शेविक फ़ार्मूले की बजाय एक समूचे वैकल्पिक जीवन की लड़ाई के रूप में ही समझने की ज़रूरत है. और दुनिया एक तबके द्वारा दूसरे के शोषण की सच्चाई से कभी की आगे निकल गयी. शुरु में ( और अब भी ) शोषण पर पलती-बढती पूँजी का जिन्न अब इतना बड़ा हो गया है कि military industrial complex और climate change कोई दूर के खतरे नहीं. और इससे बढ़्कर एक सभ्यता के रूप में हमारी विविधता - कई किस्म के खान-पान, पहनावों, तौर-तरीकों का सफ़ाया हो गया बाज़ार के मानकीकृत शोकेस को सजाने में. हम अब कहीं और बैठे प्रोलेतेरियत के लिये नहीं, अपने लिये और सबके लिये लड़ रहे हैं - उन अमीरों के लिये भी जिनको कोई भी दो-चार आसन-व्यायाम-वास्तु-फ़ेंग्शुई जैसे शिगूफ़े से चूतिया बना जाता है और जिनके बच्चे ज़रा सी बात पर अपनी क्लास के साथियों पर गोली दाग देते हैं.

वैसे ये कमेंट शायद रवीश के नैनो से घायल पॊस्ट पर जानी चाहिये थी लेकिन मैंने यहाँ टीप दिया. यार बीच-बीच में चटकर फ़्रस्टिया जाता हूँ. कभी आईये महानदी.

Mihir Pandya said...

मैं दूसरी पोस्ट से लगभग सहमत हूँ. जो आपने लिखा, "वर्ग-संघर्ष को एक तबके द्वारा दूसरे को धकिया कर उसी कार, एटम बम और चाँद पर कॉलोनी के रेस को जीतने के सरलीकृत बोल्शेविक फ़ार्मूले की बजाय एक समूचे वैकल्पिक जीवन की लड़ाई के रूप में ही समझने की ज़रूरत है. और दुनिया एक तबके द्वारा दूसरे के शोषण की सच्चाई से कभी की आगे निकल गयी." यह लिखना भी एक बड़ी बात है हम लोगों में. लेकिन इस बात को मानने पर भी कुछ चीज़ें कैसे समझी जाएँ ये समस्या मेरे सामने अब भी बाकी है. जैसे...

1. नैनो को तो हम 'पर्यावरण' वाले तर्क से पीट सकते हैं लेकिन फ़िर 'मेट्रो' का क्या करेंगे? मेरा मतलब यह नहीं कि वहाँ भी बड़ा खतरा है लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि 'मेट्रो' दिल्ली में वैसे ही मध्य वर्ग की उम्मीद बनकर उभरी है जिस तरह नैनो (और नैनो अभी ख्वाब है, मेट्रो हकीक़त). और जो पर्यावरण संबंधी तर्क नैनो का विरोध करता है उसमें भी मेट्रो एक समाधान है. तो हम अपने पर्यावरण संबंधी तर्क से रवीश कुमार कि 'नैनो' वाली पोस्ट से तो बखूबी जूझ लिए लेकिन जब गुरुशरण दास अपने लेख में 'मेट्रो' की तारीफों के पुल बांधते हैं तब उसपर हमारा रुख क्या हो?

2. हाल ही में अलगोर की बनाई फ़िल्म The inconvenient truth देखी है. वहाँ तो एक साम्राज्यवादी इस climate change को अपनी रणनीति बना रहा है. इस्तेमाल कर रहा है इसका मनचाहा. मुझे वो फ़िल्म देखकर लगा कि लड़ाई बहुत ही जटिल होती जा रही है. बहुत सावधानी की ज़रूरत है. मुझे अबतक ठीक से पता नहीं कि उसपर कैसे रिएक्ट करूं. चालाकी पकड़ में तो आ रही है लेकिन मामला जटिल है यह तो मानना पड़ेगा.

JNU आए बहुत दिन हुए. आऊंगा तो मिलना होगा ऐसी उम्मीद है. महानदी भी आना होगा. और आप दुनिया का सबसे महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं इसमें कोई शक नहीं. उसके सामने बाकी सब बकवास है!

आप यूं ही अपनी सारी भड़ास यहाँ निकालते रहें. यही तो मेरे ब्लॉग की असली जान है. शुक्रिया.

गंगा ढाबा said...

कारें असल में वाहन का सबसे फूहड़ रूप हैं और तकनीक का सबसे अश्लील पूँजीवादी अपव्यय. पूरी दुनिया की 75% सड़कें घेरती हैं और 5% लोगों को ढोती हैं. इनके मुकाबले बसें 5% जगह घेरती हैं और 60% यातायात पूरा करती हैं.और कचरा भी कम फ़ैलाती हैं. इसके बावजूद हमारी सरकार सुनियोजित तरीके से कारों को सब्सिडी दे रही है और बसों को हतोत्साहित कर रही है. मौजूदा हालात में कारों की बजाय mass transit system का विकल्प ही बेहतर है. मेट्रो भी इसमें शामिल हो तो कोई हर्ज़ नहीं. मेट्रो पर इसके लिये ज़रूर जिरह हो कि उसका प्रबन्धन इस तरह न हो कि मेट्रो स्टेशन पर मॉल बनाने के लिये हम बच्चों से अप्पूघर छीन लें. और गुरुशरण दास जैसों के लिये जवाब यह कि मेट्रो या ऐसे किसी भी जुगाड़ की अन्ततः सीमा है. देश के सभी इलाकों का सन्तुलित विकास ही आखिर हमारे महानगरों पर बढ़ते बोझ का जवाब है. ना दिल्ली का मेट्रो ना मुम्बई की ’राज’नीति.


अमरीकी हत्यारी नीति के कारिन्दे अल गोर को जब ग्लोबल वार्मिंग की गर्मी चढ़ती है तो इसके पीछे उनको बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भट्ठी नहीं गरीबों का चूल्हा दिखता है. और इसी के लिये उनको नोबल मिलता है. लेकिन दूसरी तरफ़ अल गोर को यह जवाब देना कि ’पर्यावरण की बाबत तुम्हारी जिम्मेवारी खोखली है क्योंकि तुम सिर्फ़ पूँजी के लिये जिम्मेवार हो और हम जीवन के लिये’ एक साहसपूर्ण और सजग राजनीति की माँग करता है. इसके बजाय हमें यही कहना सुविधाजनक लगता है कि जब तुम गैर-जिम्मेवार हो सकते हो तो हम क्यों नही. और यह राग ज़्यादा तालीबजाऊ भी है. लेकिन जीवन के प्रति हमारी जिम्मेवारी ही हमें औरों से अलग खड़ा करती है. हम बराबरी स्थापित करने के लिये लड़ रहे हैं या गैर-जिम्मेवारी में बराबरी के हक के लिये.